रचता हूँ मैं महलों को और झुग्गियों जीवन जीता हूँ।
क्या करूँ मैं घुट-घुट के,अपने आँसू को पीता हूँ।
समझे न कोई दर्द मेरा,मैं कितना मजबूर हूँ।
क्योंकि मैं मजदूर हूँ-क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।
कभी धूप में तपता हूँ मैं,कभी आग में जलता हूँ।
कंधों पर जिम्मेवारियों का बोझ लेकर चलता हूँ।
मैं नदियों पर बांंध बांधता, मैं हीं सड़क बनाता हूँ,
पर अपने तकदीर को मैं बना नहीं पाता हूँ।
लगता है जैसे खुदा की नजरो से भी दूर हूँ।
क्योंकि मैं मजबूर हूँ, क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।
मुझे चाह नहीं महलों की,मैं जमीं पर सोता हूँ।
दिन-रात मेहनत करके भी अपने हालत पर रोता हूँ।
अपने सपनों के टूटने का, कहाँ प्रवाह मैं करता हूँ,
मुश्किलों से लड़-लड़कर ,मैं पेट अपनो का भरता हूँ।
छल-कपट मुझमें नहीं, मैं गरीब जरूर हूँ।
क्योंकि मैं मजदूर हूँ-क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।
क्या करूँ मैं घुट-घुट के,अपने आँसू को पीता हूँ।
समझे न कोई दर्द मेरा,मैं कितना मजबूर हूँ।
क्योंकि मैं मजदूर हूँ-क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।
कभी धूप में तपता हूँ मैं,कभी आग में जलता हूँ।
कंधों पर जिम्मेवारियों का बोझ लेकर चलता हूँ।
मैं नदियों पर बांंध बांधता, मैं हीं सड़क बनाता हूँ,
पर अपने तकदीर को मैं बना नहीं पाता हूँ।
लगता है जैसे खुदा की नजरो से भी दूर हूँ।
क्योंकि मैं मजबूर हूँ, क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।
मुझे चाह नहीं महलों की,मैं जमीं पर सोता हूँ।
दिन-रात मेहनत करके भी अपने हालत पर रोता हूँ।
अपने सपनों के टूटने का, कहाँ प्रवाह मैं करता हूँ,
मुश्किलों से लड़-लड़कर ,मैं पेट अपनो का भरता हूँ।
छल-कपट मुझमें नहीं, मैं गरीब जरूर हूँ।
क्योंकि मैं मजदूर हूँ-क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।